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मंगलवार, 7 जून 2016

बेबसी !



कभी कभी सामने से ऐसा गुजर जाता है कि न रोना आता है और न कुछ कर पाते हैं।  ऐसी देखी एक दिन बेबसी और फिर ये कविता रची।

स्वेद बिंदु है 
चमकती माथे पर ,
सिर पर लादे बोझ 
गड़ा गड़ा कर 
रखती हर कदम 
गिर कहीं गया 
तो 
रोटी भी नसीब न होगी। 
बच्चों की खातिर 
जुटी हैं
धूप  से जलती दोपहर में।
आँचल से बहती 
दुग्ध धार को 
छुपा लेती है। 
पेड़ की छाँव में 
भूख से बिलखते लाल को 
छोटी दुलरा रही है --
चुप हो जा भैया 
वो देखो माई आ रही है ,
फिर मिलेगा न दू दू 
मेरा राजा भैया है न। 
उसे क्या पता ?
माई को छुट्टी तभी मिलेगी 
जब घंटी बजेगी। 
आकर वह 
खुद न रोटी खायेगी 
लेकिन 
लाल का पेट भरेगी। 
कानों पड़ती 
आवाज लाल की 
स्वेद अश्रु एक साथ
बहकर चेहरा भिगो रहे थे। 


1 टिप्पणी:

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 9-6-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2368 में दिया जाएगा
धन्यवाद