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शनिवार, 2 जून 2012

बादलों से भाव !

पता नहीं क्यों?
हवा में बिखरे
रुई के फाहों से बादल
जेहन में उमड़ते
भावों और शब्दों की तरह
इधर से उधर
उमड़ते घुमड़ते रहते हें.
वह आसमां में
कई टुकड़ों को जोड़कर
क्षण क्षण में
अलग अलग आकृतियाँ
बनाकर फिर बिखर जाते हें.
ठीक वैसे ही
जैसे भावों के अनुरुप
शब्द समूह बनते हें
नहीं ये नहीं
फिर दूसरा संयोजन
नहीं ये नहीं
फिर नए शब्द समूह
सही लगने लगते हें.
पन्नों पर उतार कर
sthayitva  पा लेते हें.
बस यही तो वे
बादलों की आकृति से अलग
क्षणभंगुर नहीं होते.
अपने स्वरूप से
छू जाते हें अंतर को.
कभी कभी
बादलों सा पिघल कर
बादलों से गिरती बूंदों की तरह
भाव आँख में उतर कर
बरस जाते हें.
बस दुःख पी लेने की
ताकत आ जाती है.

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर और सार्थक भावप्रणव रचना!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ये शक्ति अंदर से ही आती है ...
भावमय रचना ...

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

कल 04/06/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

विभूति" ने कहा…

बहुत सुंदर
प्रभावित करती रचना .

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

सही कहा हैं आपने रेखा दीदी ...ऐसे ही हैं मन के भाव

yashoda Agrawal ने कहा…

शुभ प्रभात
सर्व प्रथम शुभकामनाए..
मन स्पर्श को लिये
कृपया एक अंग्रेजी का शब्द का अनाधिकार प्रवेश ..
हटाइये और रखिये इसे
स्थायित्व

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुंदर मनोभाव......बादलों से....

अनु

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

सुन्दर भाव से लिखी
सुन्दर रचना...