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शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना की आंधी !









आज फिर आज़ादी जैसा जूनून भरा है मन में ,
ऐसा ही जोश छलक छलक रहा है जन जन में।

नहीं खबर है उनको इसकी कि दिन है या रात ,
पीछे तुम्हारे चलना है बस यही मन में एक बात।

गाँधी का प्रतिरूप मान कर साथ है आपके जनमानस,
उनके जैसे कदम बढे तो साथ हो चला ये जनमानस।

बौखलाहट में उनको अब नहीं कुछ भी सूझ रहा,
उबल बड़ा है राष्ट्र एकदम जो मनमानी से जूझ रहा।

ज्वालायें अब थाम चुके हैं प्रतिरोध की हाथों में ,
संघर्ष की माटी का तिलक लगा अपने माथों में।

यह जो जंग छिड़ी है तो अब परिणाम तक जानी है।
दिवस , माह औ' वर्षों तक चलाने की ही ठानी है।

बालक , युवा औ' वृद्धों ने अब मशाल थामी है,
जो हैं अशक्त तन से उनकी भी इसमें हामी है।

वे इतिहास दुहरा नहीं फिर से बना रहे नया हैं ,
पर मिट्टी में मिल जाने का इतिहास वही रहा है।

बचा नहीं पायेगा उनका धन भंडार अकूत,
मान प्रतिष्ठा डूब गयी तो क्या करेगा भूत।

वर्तमान में मांग यही है बस कुचले भ्रष्टाचार ,
पालकों को उसके सिखा ही देंगे ये है सदाचार .

बुधवार, 17 अगस्त 2011

दोहरा सत्य !

वो दर्द का एक सैलाब दिल में लिए,
यूं ही सबकी ख़ुशी में मुस्कराती रही,
आँखों में बसी उदासी औ' नमी को ,
झुका कर नजरें दुनियाँ से छुपाती रही।

रोका उसे औ' झांक कर आँखों में उसकी,
एक दिन मैंने पूछ ही लिया उससे कि ,
क्यों तुम बाहर से खुश दिखने के लिये,
इस तरह अपनाकलेजा जलाती हो तुम?

छूते ही मर्म बह निकला दर्द शिद्दत से,
उमड़ते हुए गुबार उसमें सब बहने लगे,
हंसती हूँ तो लोग शामिल भी कर लेते हैं
रोई हूँ जब तक कतरा कर निकल गए।

ab to समझ ली है रीत दुनियाँ की,
गर उनकी ख़ुशी में हंसों तो ठीक है,
वो तुम्हारे ग़मों को बाँट कर कभी
तुम्हारे साथ रोने कोई नहीं आता।

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

मेरी कलम से !

मेरी कलम

मेरी सबसे बड़ी हमराज है।

कितनी प्यारी सी सहेली है,

बताऊं कैसे ?

इससे खास

शायद कोई नहीं,

ये जानती है

मेरे ग़मों और

मेरे सदमों को,

किन शब्दों में

उजागर करना है।

आंसुओं की स्याही

कहाँ गहरी औ'

कहाँ हल्की रखनी है।

टपकते हुए आंसुओं को

जज्ब  कर

कब कितनी शिद्दत से

उगलना है जहर

एक ऐसा जहर

जो खुद को ही

मार दे ,

दूसरे से मिले दर्द को

सह सके

औ' मन  से उन्हें

बुरा न कहे

मेरे जख्मों को

खुद ही

कागज पर उतार कर
मरहम बना देती है
और फिर
हल्का दिल लिए ,
मैं उसको हाथ में लिए
तकिये पर सर रखे
शांति से सो जाती हूँ.
मेरे सारे गम
उसने कागजों पर
उतार जो दिए थे
.

बुधवार, 10 अगस्त 2011

कलयुग के आदर्श !

मैं
आदर्शों और सिद्धांतों की
ढाल लिए
जीने का सपना लेकर
खुद को बहुत
सुरक्षित समझ
जीवन समर में उतरी।
नहीं जानती थी तब
कि
यहाँ षडयन्त्रो,
झूठ, फरेब , चालाकी के
अस्त्र शास्त्रों से
ये ढाल बचा नहीं पायेगी
जिनके बीच रहना है।
वे बहुत शातिर हैं,
खड़े खड़े तुम्हें
सच होने पर भी
गीता की कसम लेकर
झूठा साबित कर देंगे।
और फिर
इल्जामों की सलाखों में
कैद होकर
अपने निर्दोष होने की
गवाह अपनी आत्मा से कहोगी
तुम्हें पता है न,
मैंने कुछ कभी गलत
किया ही नहीं
फिर ऐसा क्यों?
आत्मा सर झुका कर
कहेगी
ये कलयुग है
त्रेता में सीता भी
ऐसे ही
फिर तुम तो कलयुग में
तुम सी
बहुत झूठ साबित की गयी
मैं हूँ न
तुम्हारी आत्मा
तुम्हारे निर्दोष और निष्पाप
होने की गवाह
और क्या चाहिए?
याद रखो
कलयुग में
सच हमेशा रोता है
औ'
झूठ फरेब सुख से सोता है।

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

आह्वान !

सृष्टि का आधार हो तुम
इस जगत की पालनहार हो तुम
तुम्हें नमन करूँ
फिर भी ये तो कहना ही है ----
तुम शांत धीर गंभीर
सरिता सी शीतल
आँचल में छिपाए
दर्द दुनियाँ का
रोज मरती हो सौ सौ बार
इस तरह शांत रहो
कुछ तो कहो
हो तुम सागर सी विशाल
तट फैला कर मीलों तक
संहारिणी भी बनना सीखो
काँप जाए हाथ उनके
थर्रा उठे आत्मा उनकी
विवश बेचारी मत बनो
कुछ तो कहो
सब कुछ कलुषित
तेरी लहरों में बिखरा कर
वे पवित्र हो गए
आँचल छू कर तेरा
कलुषित तुझे कर गए
फ़ेंक दो बाहर उन्हें
करो बगावत ऐसे लोगों से
अब शांत मत बहो
कुछ तो कहो
मूक नाद तेरा
मूक गिरा तेरी
मौन स्वीकृति मान कर
कर जाते हैं तिरस्कार तेरा
पापनाशिनी बनकर
मत समेटो त्याज्य उनका
तुम पवित्र हो गंगा सी
बोलो कुछ तो बोलो
अब इतना मत सहो
कुछ तो कहो