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रविवार, 29 मई 2011

दर्द किसी सूने घर का !

तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझे देखे हुए तो जमाना गुजर गया।

कभी गूंजती थी किलकारियां इस आँगन में,
वर्षों गुजर चुके है इसमें अब सन्नाटा पसर गया।

कभी गुलज़ार थी ये इमारत भी जिन्दगी से,
अब गुजरता ही नहीं है मानो वक़्त ठहर गया।

बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।

आशियाँ तो बनाया था तेरे ही लिए मैंने,
जिन्दगी पले इसमें ये ख़्वाब ही बिखर गया।

शुक्रवार, 27 मई 2011

एक टुकड़े साए की तलाश


कड़ी धूप और तपिश में

ऊपर देखते हुए
इसी तरह चलते रहना है
एक टुकड़े साए की तलाश में

सूखते हलक '
पपड़ाये होंठों को
तर करने की चाहत सिमटी है,
इस खुले हुए नीले आकाश में

भटक रही हैं निगाहें
दूर दूर तक
मिलेगा कोई दरिया
प्यास बुझाने के लिए
बढ़ रहे हैं कदम इसी विश्वास में

रेगिस्तान की तपती रेत
सुखा देती है
आशा की बूंदों को
जिन्दगी ही तब्दील हो रही है
सांस चलती हुई इस जिन्दा लाश में

बुधवार, 25 मई 2011

ख्वाहिश नहीं करते!

गर तुम्हें गुरेज है मुहब्बत में पहल करने से,
तो हम भी दुनियाँ के सामने नुमाइश नहीं करते

ये वो पाक जज्बा है पलता है रूह में भीतर ही,
मिल सका तो मुकद्दर की आजमाइश नहीं करते

छिपाकर भी मुहब्बत के अहसास नहीं मरा करते,
तुम चाहो तो फिर तुम्हारी ख्वाहिश नहीं करते

रूह मेरी है, अहसास भी मेरे है नियामत मेरे लिए ,
बहुत दिया है खुदा ने अब कोई फरमाइश नहीं करते

रविवार, 22 मई 2011

भटकन !

मनुष्य
जीवन सत्य से
आँखें मूँद कर
जब चलने लगता है

किस गुमान में
बुरी तरह से
विकृत भावों से
जब घिरने लगता है

मूल्य खो जाते हैं,
आस्थाएं दम तोड़ देती हैं,
विश्वास भी टुकड़े टुकड़े
होकर गिरने लगता है

मानवता रोती है,
गिड़गिड़ाते हैं सुजन
दर्प और दंभ के साए में
खुद ही जलने लगता है

शेष कुछ नहीं,
विवेक भी मूक
खुली आँखों से
अंधत्व की ओर जाते
रास्तों को देखने लगता है

बुधवार, 18 मई 2011

चार लाइने !

इस को लिखने बैठी तो फिर इससे ज्यादा लिख ही नहीं पाई क्योंकि ये एक उत्तर था किसी के प्रश्न का और जितना बड़ा प्रश्न उनता ही तो उत्तर होता है।

अपने को मैंने बहुत पहले ही पढ़ लिया है

तभी तो जिन्दगी को इस तरह गढ़ लिया है,

अब क्या सुनाएँ दोस्त दास्ताने जिन्दगी,

वक़्त के पहले ही खुद सूली पर चढ़ लिया है


* * * * * *

ये कामना ही मेरी भगवान से,

जियें जब तक जियें सम्मान से,

दूर ही रखे वो मुझे अभिमान से,

मूल्य प्रिय हों सभी को जान से

सोमवार, 16 मई 2011

मौत का फैसला !

करना अपनी मौत का फैसला
क्या इतना ही आसान होता है?

पहले सौ बार दिल सोचता है,
अकेले ही जार जार रोता है

अपने ग़मों की हदें गुजर जाने पर
इंसान कभी कभी आपा खोता है

ख्याल अपने बच्चों का उसके जेहन में
एक नहीं बार बार सामने से गुजरता है

जीवन के सुहाने और दुखद पलों का
गुजरा सिलसिला भी नजर में तैरता है

डगमगाते हैं कदम उसके फिर
हालात का भी एक वास्ता होता है

कुछ सुखद पलों का साया भी
उससे साहस को हिला भी देता है

फिर दिल पर लगी चोट का अहसास
उसके फैसले पर मुहर लगा देता है

इन पलों को गर टाल दे कोई तो
जिन्दगी का ही पलड़ा भरी होता है

गुरुवार, 12 मई 2011

फूल भी झरते हैं!

ये सच है
बोल बड़े अनमोल हैं भाई,
फिर ये भी सच है
अनमोल वही होते हैं
जिन्हें हम
बोलने से पहले तौल लें भाई.
वही शब्द और जीव वही
कहीं शीतल फाहे से
तपती आत्मा को
शांत कर देते हैं.
औ'
कहीं वही शब्द
अंतर तक बेध जाते हैं.
बुद्धि वही, सोच वही, इंसान वही
फिर क्यों?
कहीं हम विष वमन करते हैं
और कहीं
मुख से हमारे फूल झरते हैं.
दोषी कौन?
हम जो जला या सहला रहे हैं,
या फिर वो
जो जल रहे हैं और
अन्दर ही अन्दर राख हो रहे हैं.
अरे इंसान हैं हम
जीते तो सब अपने हिस्से के
दुःख और सुख हैं.
हम फिर क्यों
दूसरों के सीने पर
शब्दों के खंजर चला कर
लहूलुहान करते हैं,
जबकि उन्हीं शब्दों से
फूल भी झरते हैं.

बुधवार, 11 मई 2011

नजरिया अपना अपना !

जब अपनों ने दिए
गम पे गम
आत्मा टूट कर चकनाचूर हो गयी,
हताश हो
कैद कर लिया
खुद को एक कमरे में
हवाएं दस्तक दे रहीं थी,
दरवाजे बंद कर लिए,
खिड़कियाँ बंद करके
परदे खींच लिए
टकरा टकरा कर वह लौट गयीं
भयावह नीरवता
जब काटने लगी,
फिर दस्तक के लिए
दरवाजे खोलते हैं,
कोई हवा आती क्यों नहीं?
दस्तकें अब सुनाई देती नहीं,
अब खिड़की दरवाजे सभी खुले हैं
लेकिन
हवाओं ने रुख मोड लिया है
तुमने अच्छा किया
या हवाओं ने
ये तो वक्त ही बताएगा,
जब जिन्दगी में
कुछ नजर नहीं आएगा
गर हिम्मत से काम लेते
जिन्दगी को इस तरह से
कमरे में कैद करते
खुशियाँ खोजी होतीं
कलियों में, नजारों में,
ये दर्द खुद खुद उसमें खो जाता
और फिर
तुम्हें उसमें जिन्दगी नजर आने लगती
वक्त हर जख्म का मरहम है
कोई भले ही सोचे
ये वक्त बड़ा बेरहम है

बुधवार, 4 मई 2011

उत्तर : अनुत्तरित प्रश्नों के !

एक दिन मन में उठा ये प्रश्न,
अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं है?
आवाज एक उठी अंतर से
ये प्रश्न अनुत्तरित इस लिए है
क्योंकि
इनका कोई उत्तर नहीं होता,
खोजोगे भी उत्तर तो
फिर नए प्रश्नों का जन्म होगा,
और प्रश्नों और उत्तरों में ही
जीवन उलझ कर रह जायेगा
सुलझा तो उन्हें अनुत्तरित
छोड़कर भी नहीं है।
इस लिए उन के सवाल पर
काला चश्मा लगा रहने दो
क्योंकि उत्तर देने के लिए
तुमसे आँखें मिलानी होंगी
और काले चश्मे के पीछे छिपी
सुर्ख आँखों की लाली
दिल का हाल बयान कर देंगी।
फिर प्रश्न
उस सुर्खी पर
और उस पर भी
उठे सारे प्रश्न अनुत्तरित रह जायेंगे
इस लिए
कुछ अनुत्तरित प्रश्नों को ही
जीवन का सच बन जाने दो
और सच सिर्फ सच होता है
जिसको नियति ने
प्रारब्ध में लिखा होता है।

रविवार, 1 मई 2011

नदी के किनारे !

नदी के दो किनारे
दूर से देखते हैं
एक दूसरे को
' जुड़े भी हैं
बीच में बहते हुए पानी से
किन्तु
जब भी मिलने की सोची
करीब आना चाहा
नदी बीच से हट गयी
तो वे दो किनारे ही रहे
एक सूखा मैदान
जिसकी कोई पहचान नहीं होती
वापस हट लिए
नदी के किनारे ही सही
हम जुड़े तो हैं
पानी के एक रिश्ते से ही सही
हमारी पहचान तो है
एक किवदंती है
नदी के दो किनारे
कभी इक नहीं होते हैं
चलते हैं साथ साथ
युगों तक निरंतर
तभी वे
अपनी पहचान नहीं खोते