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मंगलवार, 29 मार्च 2011

ये त्रासदी !


रे धृष्ट मानव
क्यों खेल रहा है?
प्रकृति के जर्रे जर्रे से,
माना बुद्धि बहुत है तेरी,
अनुसंधानों से है धरा भरी
तेरे सारे मंसूबों को
पल में खाक किया इसी प्रकृति ने,
थर्रायी धरती और
जब सागर ने उछाल भरी,
फटने लगा जब ज्वालामुखी
गैसों ने भी उबाल भरी,
लहरों ने समेटा अपने में,
तिनके सी तेरी सत्ता को,
ताश के पत्तों सा बिखर गयी
वर्षों से सजाई दुनिया तेरी

जीवन मानव का सिमट गया
लहरों के तेज सुनामी में
जो बचा खुचा सा जीवन है
गैसों ने इसे लपेट लिया।
हाहाकार मचा विश्व में
ये हाल तो उस धरती का है,
जो जागरुक थे भू कम्पन से।
शेष अभी तो सोच रही है,
कब कैसे क्या करना है?
जब घट जाएगी घटनाएँ
तब आकलन करेंगे कमियों का,
फिर क़ानून बनेंगे, लागू होंगे,
मानक पर फिर मानक होंगे।
कुछ मानक पैसे से बिकेंगे
कुछ तो बस मानक होंगे।
जीवन निर्दोषों का जाएगा,
उनके लिए ही त्रासदी होगी।
कब सुना कोई बड़ा
इस हादसे का शिकार हुआ।
अरे अब तो चेतो तुम
धरा के मत खिलवाड़ करो।
मानव हो मानव बनकर
मानव सा ही व्यवहार करो


शुक्रवार, 25 मार्च 2011

तकदीर से जंग !

तकदीर मुस्करा कर
मुझसे ये बोली,
कहर ढाने में मैंने
कोई कसर नहीं छोड़ी,
फिर कहाँ से ?
तुमने चेहरे पर मुस्कान ओढ़ी
देख कर उसकी तरफ
मुस्करा कर मैं यूँ बोली,
तेरे कहरों को
मेरे मुस्कराहट और हंसी ने
हवा में उड़ा दिया है
ये जिन्दगी मेरी है,
उसने कभी भी
अपनी आस नहीं तोड़ी
अपने गम को
दूसरों की ख़ुशी में डुबो दिया है,
निकले तो वे मेरी
ख़ुशी बन चुके थे ,
फिर उनमें डूबकर
अपने गम भुला दिए हैं
अपनों ने गर साथ छोड़ा
हाथ दूसरों ने थमा दिया था,
बेशक प्यार मैं सिर्फ देती हूँ,
पर बदले में -
बहुत प्यार पाया है
फिर तुम कहाँ से जीती?
मेरी एक ख़ुशी छीनी '
मैंने दूसरे के आँसूं बाँट कर
ढेरों खुशियाँ बनायीं हैं
घिरी हूँ औरों की खुशियों से
फिर
अपनी कहाँ याद आई हैं?
यही है जिन्दगी मेरी
जिसे
मैंने अपने हाथों से बनायीं है

बुधवार, 23 मार्च 2011

२३ मार्च शहीदों को नमन !

मुझे लिखते देख मेरी सहेली रही - क्या कर रही हो ? उसे बताया कि आज शहीद दिवस है कुछ लिखना चाह रही हूँ। तुरंत वह बोली - साल में वही दिन तो आते हैं और तुम हर बार वही लिख कर डालती रहती हो। इससे क्या फायदा? कुछ नया हो तो लिखो, मुझे मजा नहीं आता मैं उसे कैसे समझाती कि मैं जो लिख रही हूँ वह एक जरूरी चीज है लेकिन गद्य भूल कर लिख बैठी ये पंक्तियाँ --

इतिहास बदला नहीं करता है,
वे तारीखें जो लिखी हैं इसमें,
उनकी इबारत पत्थर पर लिखी है ,
' उस पत्थर पर हमारी
आज़ादी कि इमारत खड़ी है
हम दुहराते हैं उन तारीखों को जरूर
जिन्हें इतिहास में मील के पत्थर भी कहा करते हैं,
घटनाएँ कुछ ऐसी घट जाती हैं,
जो तारीखों का वजन बढ़ा देती हैं।
इतिहास के पन्नों पर वे ही दिन
मजबूर कर देते हैं मानव और मानस को
फिर एक बार उस इबारत को दुहरा लें
शहीद वही, शहादत वही, इतिहास भी वही,
लेकिन इस तारीख के जिक्र पर,
सर झुक ही जाता है इज्जत से
क्योंकि
हमारा जमीर इनको याद करते ही
मजबूर कर देता है नमन करने को
मजबूर कर देता है नमन करने को

मेरी आज २३ मार्च को उनके बलिदान दिवस पर अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

कब जाना तुमने?


अपने हिस्से के दर्द सबको ए दोस्त
खुद सहने पड़ते हैं ये कब माना तुमने?

आज जो हंसी की आवाजें सुन रहे हो,
कहकहों के दर्द को कब जाना तुमने?

जी लिया है दर्द जो मिला है मुझको,
तर आस्तीन का राज कब जाना तुमने?

आंसुओं से धुलकर धुंधली हो चुकी तस्वीर ,
उसके कितने बाकी अक्श ये कब जाना तुमने?

एक लम्हा भी कब जिए हैं खुद के लिए,
कितना खारा पानी पिया कब जाना तुमने?

हम तो उधार की जिन्दगी ही जिए हैं,
कितनी मौत मरे है कब जाना तुमने?

इक यही तमन्ना थी कि दीदार हो तेरे,
इसके बाद जिन्दगी कब चाही हमने?