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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

कलम का धर्म !

कलम कब रूकती है
वह तो कुछ न कुछ
रचेगी ही,
किसी का दर्द
लिखा तो खुद ही रो दी.
बयान खुशियाँ  की
तो उसके संग
खुद भी मुस्करा ली.
प्रकृति के संग
उलझ गयी तो
चाँद से तारों तक
नदी से पहाड़ों तक
धरती से आकाश तक
सब में घुल मिल ली.
बगावत की आंधी आई
तो शोले उगलने लगी
हवा देने लगी
सोयी हुई इंसानियत को
जागो और इन्साफ के लिए लड़ो.
खुद शब्दों से लड़ ली.
ख़ामोशी को भी
बयान कर जाती है
खामोश से लफ्जों में
और फिर खामोश हो ली.
ये कलम कब रुकती है
कुछ भी सही
मेरा तेरा सबका ही रचती है.
छू जाती है मन
सब में कहीं न कहीं
अपना ही अक्श देख ली.

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मृग मरीचिका !

मृग मरीचिका सा
बाहर जाने का सुख
रंगीन सपनों की चमक
स्वर्ग सा जीवन
जीने की ललक
उड़ा ले गयी
उसे दूर बहुत दूर
अपनी जमीन से.
फिर दूसरी धरती पर
रखते ही कदम
फँस गए दल दल में
न जमीं अपनी

न आसमां अपना
रोने की आवाज भी
कोई नहीं सुनता.
कोई फरिश्ता ही
बचा ले
तो अपनी जमीन पर
आखिरी बार
सिजदा ही कर लूं.
या खुदा करे
तो फिर अपने वतन की
सरजमीं पर खुद को
कुर्बान ही कर दूं.

सोमवार, 26 जुलाई 2010

घर के चिराग !

एक एक करके
चिराग घरों के
गुल क्यों हो रहे हैं?

कभी इस घर में रुदन,
कभी उस घर में चीत्कार
क्या मातम
इसी तरह से
रोज पसरता  ही रहेगा.

एक दिन
सारे चिराग गुल होकर
अँधेरे में डूबा
ये गुलिश्तां
श्मशान  ही बन जाएगा.
और इन बेसहारों का जीवन
घिसटेगा बिना बैसाखियों के
अरे कुछ तो करो
रोको इन पागलों को
जो इंसां की पौध 
बेपनाह रौंदते जा रहे हैं.  

रविवार, 25 जुलाई 2010

गुजरा हुआ बचपन !

आज पता नहीं क्यों?
भूला हुआ बचपन
फिर याद आया है.
तौल रही हूँ
तब से अब तक
जिए हुए पलों को
क्या खोया क्या पाया है?
वो  छोटे छोटे सपने
सखियों के संग बुनना,
किताबों की ओट से
छुप छुप कर हंसना,
लंगड़ी टांग, खो-खो के संग
झूले पर पींगे भरना,
गुड़ियाँ की शादी
गुड्डे से रचाना,
जो सुना था बड़ों से
गुड़ियों को सिखाना ,
फिर अचानक
छोटने  लगा बचपन
सखियाँ भी छूटी .
सब चल दिए
अलग अलग राहों पे,
वह दौर शुरू हुआ
सबके जीवन का
घर , परिवार , बच्चे
और दायित्वों का बोझ
 तय किया  लम्बा सफर
आज सब पूरे हुए तो
सपने से जागी सी
फिर खोजने लगे अतीत
फिर वही याद आयीं
पुकारा उन्हें तो
आवाज वहाँ से आई
हम भी वही हैं
तुम चली आओ
फिर गले लगकर
जो आंसू बहे थे
छिपा था उसमें बचपन
या मिलने की ख़ुशी थी.
बस
फिर मुझे अपना बचपन याद आया है.
सोचेंगे फिर
क्या खोया क्या पाया है.

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

उँगलियों पर छाले!

मुझे दुहाई मत दो
उन रिश्तों की
जिन्हें ज़माने ने
अपना औ' सबसे अपना कहा है,
उनके दिए ज़ख्म
पैबस्त हैं सीने में,
गिनने बैठ जाऊं
तो
उँगलियों में छाले पड़ जायेंगे.
इससे बेहतर है,
उन्हें दफन ही रहने दो
जो खुशियाँ गैरों से
मिल रही हैं.
मुझे उनमें ही जीने दो.
सिर्फ प्रेम की नीव पर खड़े
इन रिश्तों में
कहीं स्वार्थ और अपेक्षा
नहीं होती,
नहीं दुखते हैं दिल कभी
औरों से मिले
दुःख दर्द बाँट लेते हैं.
तभी तो ये दुनियाँ
टिकी है इस दौर में भी,
नहीं तो
दुनियाँ मायूसों से भरी होती.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

अवशेष ही अवशेष !

बहुत दिनों से
खुले अध्याय का
आज पटाक्षेप हो गया.
सब कुछ ख़त्म
एक लम्बे सफर की दास्ताँ
जो खुद बा खुद लिखी जा रही थी
फिर अचानक
एक आई ऐसी आंधी
कि पन्ने बिखर गए
उनमें अंकित इतिहास भी
धुंआ धुंआ हो गया.
उसमें जन्मे, जिए
किरदारों का भी
नामोनिशां न रहा.
तिनका तिनका जोड़कर
आशियाँ बनाया था
चिंदी चिंदी बिखर गया.
न जाने कहाँ
किस दिशा में
अवशेष चले गए
जो शेष रहे
वे भी तो सम्पूर्ण न थे.
अवशेष ही अवशेष थे.
बस उन्हें बटोरने के लिए
एक हम ही तो शेष थे.

रविवार, 11 जुलाई 2010

कैसे बचाएं बेटी तुम्हें!

कहाँ से लायें हम
संगीनों के साए
जिनके तले
महफूज़ रखें
अपनी बेटियों को.
पहले तो जन्म से पहले ही
घर वालों की नज़रों से दूर
कोख में पालना दूभर
हाँ अभी भी
हम वहीं हैं
बेटे की कामना में
बलि देने को तैयार
जैसे खाने दाँत और
दिखाने के कुछ और.
फिर जन्म ले लिया 
तो उसके बचपन में भी
प्यासी हैवान आँखें
आस पास मंडराती हैं.
गर पा गए तो
क्षत विक्षत कर दिया
फिर भी मन न माना तो
मौत की नींद सुला दिया.
इन घिनौने चेहरे पर
अपनों के भी नाम लिखे हैं
चाहे जैसे सही
गर्भ में मारा
जन्मते मारा
बच्ची में औरत की तलाश में मारा
या फिर
अपनी शान में मारा.
हत्यारे में वे भी शामिल हैं
जिनको  तोतली बोली में
रिश्तों का नाम देती थी
या देनेवाली थी
पर
वह लड़की थी
जीवन उसको  नसीब न था
भ्रूण ,बच्ची या युवा
बेटी बचाई तो
बहू को डस लिया
आखिर खा ही जाते हैं
वे जो बहुत अपने होते हैं.

शनिवार, 10 जुलाई 2010

ये बलात स्वयंभू!

आवाज की गरजती ध्वनि
गूँज जाती है
घर - आँगन में,
सहम जाते हैं
जीव जंतु ही नहीं
मानव कहलाने वाले
वे सभी लोग
जो लघु की सीमा में बंधे हैं.
किन्तु
ये गरज बयान करती है
अपनी कहानी खुद ही
साथ ही तुम्हारा मनोविज्ञान भी
कहीं कोई कुंठा
सर्वोच्च होने का अहसास
बार बार विवश करता है
अपनी विशालता की मुहर पर
स्याही लगाने के लिए
गरजते तुम
पर अपने अन्दर दबी
किसी हीनता से ग्रसित होकर
चीखते हो
कि मैं सर्वोच्च हूँ.
किन्तु भय से / दौलत से
सम्मान खरीदा  नहीं जाता
प्यार बटोरा नहीं जाता.
ये स्वयंभू होने के अहंकार
तुम्हें और नीचे गिरा देता है.
कोरे अहंकार से ग्रसित
अभिशप्त है तुम्हारा जीवन
और ग्रहण हो तुम
औरों के लिए
ग्रस रखा है तुमने
उनकी खुशियों, हंसी और सुख चैन को
कब मुक्त होगे?
कब सब लेंगे सुकून की एक सांस.
कब सब जियेंगे सुकून से
भय मुक्त जीवन.

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

मेरी प्यारी बिटिया.!

फूलों सी कोमल
रंगों सी मोहक
इन्द्रधनुष सी सजीली
बेला मोगरा सी महकती
दुलारती, इठलाती
गुडिया सी वो
है सबकी आँख का तारा
मेरी प्यारी बिटिया.
बरसाती वो प्यार
पाती वो प्यार
बस एक
हमारा घर ही तो है,
जिसमें हर आँख की किरकिरी है
क्यों वो ऐसी  है?
बेटी है तो
बंद दरवाजों की दरारों से
सांस लेने का हक है उसको
जितनी गहरी वे कहें
उतनी ही सांस ले
और वो
दरवाजे खिड़कियाँ तोड़कर
मुक्त जीना चाहती है.
मैं भी चाहती हूँ
इसीलिए
इस घर में
सबसे बड़ी गुनाहगार
मैं ही हूँ.
अपना सा जीवन
उसके हिस्से में डालूँ
कभी नहीं
जननी हूँ तो
उसकी भाग्य विधाता भी बनूंगी.
वह सब दूँगी
जिसके लिए मैं तरसी हूँ
इस विशाल अन्तरिक्ष को
उसकी प्रतिभा के सूर्य से
जगमगाना है
बेटी है तो क्या?
मान उसको मेरा बढ़ाना है.
मान उसको मेरा बढ़ाना है.