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शुक्रवार, 22 मई 2009

तिलक लगाने से कोई काबिल नहीं होता.

मैं एक मीटिंग में थी और वहां का जो दृश्य था , एक मिनिस्ट्री स्तर की मीटिंग हो रही थी, उच्च पदों पर विराजमान लोगों की बात और तब मुझे लगा कि वे जो कुछ भी नहीं जानते हैं, इस शोध की दिशा में कैसे टांग अडाते हैं, सिर्फ इसलिए कि उनके पास उस शोध को आगे ले जाने के लिए सहायता देने का अधिकार है. उनके आक्षेप और फिर प्रत्याक्षेप सुनकर बहुत दुःख हुआ और फिर वही उसी मीटिंग में इस कविता का जन्म हुआ।

०४/०५/०९

अरे बुद्धिजीवियो
क्यों?
इस तरह उड़ा रहे हो
धज्जियाँ,
इस नई पद्धति और शोध की
जिसने पौध लगाई,
सींचा है -
अपने खून - पसीने से
उसको ही
बताने चले हो
अब उसे क्या करना है?
कल तक
इस दिशा में
अनजान थे तुम
औ' आज आलोचक
भी बन गए।
अंगुली उठाने से पहले
ये तो सोचा होता
वे तीन अंगुलियाँ
तुम्हारी तरफ है,
तुमसे कह रही हैं
चुप रहो
तुम्हें इससे
कुछ भी लेना-देना नहीं है।
इस लिए
बकवास बंद करो,
मत उछालो कीचड़
किसी की गरिमा पर
बोलना सबको आता है
बस किसे ,क्या और कब
बोलना है,
ये गरिमा है - उस मानव की
जो मानव है,
विवेक और शालीनता
जिसके लिए ही बने हैं,
आदर , सम्मान और कृतज्ञता
उसके मन में भी है
वही किसी से
कुछ पा सकता है,
कुछ पाना है
तो कुछ देना भी सीखो।
लेने से कोई छोटा
नहीं होता,
देने से
कभी घाटा
नहीं होता,
कुछ ऐसा करो
कि बाद तुम्हारे
भी कोई
याद करे तुमको
अच्छे स्वर में .
नफरत और हिराकत
से कुछ हासिल नहीं होता।
अपने मस्तक
तिलक लगाने से
कोई काबिल नहीं होता.

चुनाव - आंतरिक युद्ध

महासमर
जिसको कहते रहे सब,
क्या वाकई
एक आंतरिक युद्ध है ?
वही तो है --
देश कहाँ है?
कहाँ जा रहा है?
क्या भविष्य होगा?
इसकी किसको ख़बर है,
बस इतना ही तो है,
हम तुमपर
औ' तुम हमपर
कीचड़ उड़ा रहे हैं,
हमसे (जनता)
कभी जानना चाहा है
किसे चाहती है?
क्या चाहती है?
अपनी - अपनी
स्वार्थी नीतियों को
चाशनी में डुबोकर
सबके सामने
परोसते रहे हैं।
कुछ नहीं दिखता है
एक घना अँधेरा है
हर तरफ
एक लड़ाई -- जिसमें
न तलवारें खिंचीं -
न गोलियां चलीं -
चलते रहे वाक् शर
आक्षेप , प्रत्याक्षेप ही
वह अस्त्र बने
गरिमा जिसने
तार-तार कर दी।
अपनी दुश्मनी का
बदला लेने
बहुत अच्छा मौका मिला,
अपराधी खुले घूमने लगे
और
चुनाव की आड़ में
शक्ति का
खुला दुरुपयोग हुआ।

दलों की अपनी
अलग अलग नीति हैं
नहीं पता है उनको
कि समृद्धि है किसमें
कहाँ उपयोग करें ?
हम अपने विवेक का--
विवेक धन
कहाँ जा रहा है?
पार्कों, स्मारकों या फिर
अपनी जन्म स्थली को
चमकीले सितारों से
सजाकर
इतिहास लिखने में
इसका यह तो
नहीं मतलब
कि आप इस काबिल हो गए,
कि देश सौंप दें तुमको ,
जो नहीं जानते
कि हम कहाँ हैं?
और हमें कहाँ जाना है?
प्रगति की जरूरत कहाँ है?
विवेकहीन निर्णय
वही बन्दर के हाथ
रिमोट आ गया
क्या करना है?
इसको उसको बुद्धि कहाँ है?
और उसकी तरह ही
कुछ और बन्दर
जय हो , जय हो,
कहकर पीछे चल रहे हैं?
भोला भाला जनमत ठगा जा रहा है
कहीं तो कुछ
नजर नहीं आ रहा है।
वे विवेकहीन सही,
हमें तो देश बचाना है,
अपने निर्णय को
सार्थक दिशा में
लगाना है.