चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

अंतरीप

रे मन तू अंतरीप बन जा
क्यों डूबा रहता है मन
अंहकार के घोर तिमिर में,
भटक न जाएँ कदम तुम्हारे
जीवन की इस कठिन डगर में ,
शांत, मूक औ' सजग दीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा।
भौतिकता के तेज दौड़ का
अनुगामी न होना तू,
पाकर शक्ति धन या जन की
अभिमानी न होना तू,
मोती वाली एक मूक सीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा।
सुख हो दुःख हो या हो धूप छाँव
शीतलता हो या बढे उष्णता ,
ज्वार-भाटों के आवेगों में
रखना सदा बनाये दृढ़ता ,
संतापों से दूर सदा शांत द्वीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा।
कितना ही सिर मारें लहरें
तूफानों का वेग प्रचंड सहो,
निश्चल, अटल, मध्य सागर के
खड़े सदा ही निर्संवेग रहो,
अंतर के भावों का भी तू महीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा.

कोई टिप्पणी नहीं: